रीता दास राम की पांच कविताएँ

रीता दास राम (कवयित्री)

एक..

हमें उसे अपना कहने के लिए मना किया जा रहा है
जिसे हम अपनाना चाहते हैं
जिसे हम अपना बनाना चाहते हैं
हम हमारी पसंद और चाह को हमारे ही सामने
ख़ारिज होता देख रहे हैं
हमारे सामने समाज़, हिम्मत, मौक़े, दिशाएँ और कई मुहावरे पड़े हैं
हमें अपने सलीके गढ़ने की मनाही है
और समाज़ में अपने तरीक़े से जीने की पाबंदी भी
उस समाज़ में जो हमसे ही बना है
कहा जाता है हम इंसान समाज़ की धुरी हैं
यह सोचा समझा सच … समझाया गया है
हमें यह समझने से पहले यह समझना भी जरूरी है
कि क्या समाज़ बचा रह गया है …. समाज़ के भीतर
जिसमें इंसान बसते थे
जिसमें बसता था परिवार
बच्चे और बुज़ुर्ग
जानवर भी होते थे इनमें जिसे पालतू कहा जाता था
जंगली जानवर जंगल में हुआ करते थे
समाज़ में अब जानवर नज़र आने लगे हैं
समाज़ में समाज़ के साथ जंगल का आभास भी होता है
और हम समाज़ में रहते उसी तरह डर रहे हैं
जैसे जंगल में जाने से कभी डरा करते थे।

दो..

देह है पुरुष
स्त्री कर सकती है इसका इस्तेमाल
सान्निध्य के लिए
प्रेम के लिए
तृप्ति के लिए
गर्भधारण के लिए
शिशु के लिए
चाहे शादी से पहले या बाद
यह उसकी शारीरिक जरूरतों में से है
और प्राकृतिक महत्व बचाए रखता है
जिसे सामाजिक बनाया गया है
शादी कर पुरुष के परिवार के पोषण के बदले
परिवार की इज्जत के नाम का छल-प्रपंच तज
स्त्री ले सकती है फैसला
शादी के बिना
सिर्फ़ अपने शिशु तक केंद्रित होना
आखिर शिशु की सबसे पहली ज़िम्मेदारी
खुद स्त्री की है।

तीन..

देश बदल रहा है
लोग बदल रहे हैं
सोच बदल रही है
विचार बदल रहे हैं
विचारों के अंत में रह जाने वाला प्रश्न बदल रहा है
हम प्रश्नों को बदलने का सपना देख रहे हैं
जबकि प्रश्न हमें बदल रहा है
हम न चाहते हुए जवाब बनते जा रहे हैं
मूल्य का अवमूल्यन समझ रहे हैं सब
हाशिए में भेजा जा रहा है वह सब कुछ
जिसे मुख्य धारा में होना चाहिए
एक ख़बर है मानव वध के बदले पशुवध बचाया जा रहा है
हम क्रोध का गलत इस्तेमाल होते देख रहे हैं
जो समाज़ पर भारी पड़ रहा है
हमने अपनी संवेदना को निकाल कर रख दिया है जिंदगी से बाहर
हम जीने लगे हैं बिना आत्मा के
हमें हमारा जिंदा होना बड़ी देर में समझ आता है
जब हम चुक जाते हैं बिना आत्मा के
जबकि हमें बचाना है
समाज़ और देश को आत्मा के साथ।

चार..

दो वक्त की रोटी नहीं मांगता भिखारी
सिक्का, रुपया या चाहे जो हो हमारे पास देने लायक
अपने लगभग ख़त्म हो चुके आत्मसम्मान को छोड़
ले लेता है वह सब अपनी भूख मिटाने
सड़कों पर या बदहाली में
भीख मांगना ही उसे भिखारी बनाता है
मांगना जबकि एक कला है
इसे बड़े बड़े लोग इस्तेमाल करते हैं
मान, सम्मान, दौलत, जिंदगी, शौहरत, नौकरी सब मांगी जाती है
मांगने के तरीक़े की हो पहचान
तो मांगना बुरा नहीं समझा जाता
मांगने के बदले में दिया भी जाता है
मांगने के बदले देना एक अच्छी सोच समझी जाती है
मांगने की ग्लानि को कम करना भी जरूरी होता है
जैसे सब बराबर हो जाता है लेकर दे देने के बाद
एक बोझ चुका देते हैं पीछे छोड़ते हुए एहसान
कभी कभी चीजें लौटाई नहीं जाती किसी भी रूप में … सिर्फ़ ली जाती हैं
हम आत्मसम्मान को रखते हुए एक तरफ़
मांगते चले जाते हैं मांगते चले जाते हैं बिना शर्म बिना झिझक के
जैसे मजदूर से उसकी बची हुई भूख भी
उसका बहता पसीना भी
उसकी हाँफती साँसे भी
वह जलन भी जो उसकी छाती में होती है कम खाना खाने से
हम उस जलन पर अपनी खुशियाँ सेंकते हैं
अपना भविष्य रखते हैं उसके सूखते खून पर रखते हुए ईंटें
बदले में देते हुए मेहनताना
ऐसा करते हुए हमारी भूख पेट की भूख से बड़ी हो जाती है
और ज़मीर के प्रश्न को करते हुए ख़ारिज
हम भिखारी से ज्यादा कुछ और हो जाते हैं।

पाँच..

प्रेम में प्रेम
वैसा नहीं रहा जैसा हम देखा करते थे
प्रेम के भरोसे बदल गए हैं
सीढ़ियाँ बदल गई हैं
छत जो छत सी दिखाई देती है है नहीं
छत से आकाश बहुत ऊपर दिखाई देता है
मुंडेर की दीवारें नई बन गई हैं
सीढ़ियों की चौड़ाई कम है
गहराई तक उतर कर देखना कभी कभी रह जाता है
जमीन गुम हो जाती है क़दम रखते रखते
प्रेम पहले की तरह नहीं रह गया है लोग ऐसा सोचने लगे हैं
और यह भी कि प्रेम धँसती हुई भावों की हाँफती गली सा है बहुत कुछ
जिसके छोर बंद हैं और अंदर लहरों सी हलचल
प्रकाश सा महसूस होता है
जगमगाती रोशनी भी कल्पित सी है
सड़कों पर मोड़ है बहुत और जानकारी भी कम है
बहुत सुविधानुसार यह नशीला शब्द है
खत्म होता संयम बहुत जल्द तैरने लगता है
अपनेपन के तारतम्य जड़े न खोजते हुए छुड़ा लिए जाते हैं मिट्टी से
चाँदनी रात और तारे
अब बना दिए जाते हैं शब्दों से वाक्यों से
प्यार जब जब उतरता है चाँद पर
चाँद ज़मीं हो जाता है घूमता हुआ अपनी धुरी पर
और आसमान है कि
बस ताकता भर रहता है।

– रीदारा


परिचय


रीता दास राम
रीता दास राम (कवयित्री)

नाम :-  रीता दास राम

जन्म :- 12 जून 1968 नागपूर

शिक्षा : बी.ए.(1988),एम.ए.(2000),एम.फिल (हिन्दी) मुंबई
विश्वविद्यालय (2005), पी.एच.डी. शोधछात्रा (मुंबई)।

कविता संग्रह :-

  1. “तृष्णा” प्रथम कविता संग्रह 2012
  2. “गीली मिट्टी के रूपाकार” दूसरा काव्यसंग्रह 2016 में प्रकाशित।

कहानी :- पहली कहानी लखनऊ से प्रकाशित “लमही” अक्टूबर-दिसंबर 2015 में प्रकाशित।

सम्मान :-

  1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013 में तीसरा स्थान, ‘तृष्णा’ को उज्जैन में।
  2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ नागदा की ओर से 2015-16 का।
  3. 2016 का ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद 7 फरवरी 2017 में ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से।   

विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं  :- ‘वागर्थ’ जुलाई 2016, ‘पाखी’ मार्च 2016 (दिल्ली), ‘दुनिया इन दिनों’ (दिल्ली), ‘शुक्रवार’ (लखनऊ), ‘निकट’ (आबूधाबी), ‘लमही’ (लखनऊ), ‘सृजनलोक’ (बिहार), ‘उत्तर प्रदेश’ (लखनऊ), ‘कथा’ (दिल्ली), ‘अनभै’ (मुंबई), ‘शब्द प्रवाह’ (उज्जैन), ‘आगमन’ (हापुड़), ‘कथाबिंब’ (मुंबई), ‘दूसरी परंपरा’ (लखनऊ), ‘अनवरत’ (झारखंड), ‘विश्वगाथा’ (गुजरात), ‘समीचीन’ (मुंबई), ‘शब्द सरिता’ (अलीगढ़), ‘उत्कर्ष’ (लखनऊ) आदि पत्रिकाओं एवं ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल एवं ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित।

आलेख लेखन :-  

  1. “स्त्री विमर्श के आलोक में- प्रेमचंद के उपन्यासों में नारी” – मुंबई की त्रैमासिक पत्रिका ‘अनभै’ (अक्टूबर-दिसम्बर 2014)
  2. “अंधेरे में” का काव्य शिल्प – अनभै (अप्रेल-सितंबर 2015)
  3. ‘हिन्दी नाटकों का सामाजिक सरोकार’ – हिन्दी विभाग, विज्ञान एवं मानविकी संकाय एस.आर.एम. विश्वविद्यालय, कट्टनकुलातुर, चेन्नई की किताब ‘हिन्दी नाटकों में लोक चेतना’ में प्रकाशित।
  4. ‘इक्कीसवीं सदी के उपन्यासों में आदिवासी विमर्श’ – अनभै (अक्तूबर-जून 2016) एवं अन्य

स्तंभ लेखन :- मुंबई के अखबार “दबंग दुनिया” में और अखबार “दैनिक दक्षिण  मुंबई” में स्तंभ लेखन।

साक्षात्कार : ‘हस्तीमल हस्ती’ पर लिया गया साक्षात्कार मुंबई की ‘अनभै’ पत्रिका में प्रकाशित।

रेडिओ :- वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ।  

 

 

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