घर में ही रहें (कविता) – हूबनाथ पांडेय

प्रवासी श्रमिकों का पलायन

जब हम कहते हैं
घर में ही रहें
तो मान कर चलते हैं
कि इस दुनिया में
सबके पास और कुछ हो न हो
घर ज़रूर होगा ही
उनके पास भी
जो घर पालने की फ़िक्र में
घर छोड़कर
घर से बहुत दूर हैं
जो बंजारें हैं
भिखमंगें हैं
जो रोज़
दूसरे का कुआं खोदकर
अंजुरी भर पानी पाते हैं
जो फुटपाथ पर
प्लेटफार्म पर
नाले के किनारे
पेड़ के नीचे
पाइप के भीतर
रिक्शे की पिछली सीट पर
गांव के सिवान पर
पुल पर
स्काइवाक पर
बंद दुकान के बाहर
गुमटी की छांह में
सूखे नाले के भीतर
गीली पलकों के नीचे
सबके पास होगा ही
अपना एक घर
जहां वे सुरक्षित रह सकते हैं
संसर्गजन्य रोगों से
और जब घर है
तो बरतन भी होंगे
अनाज भी होगा
होगा ईंधन भी
और पानी भी
बार बार हाथ धोने के लिए
साबुन के साथ
ऐसे में किसको एतराज़
कि वह ना रहना चाहे
घर में
निकल पड़े सड़कों पर
भूखा प्यासा
नितांत पैदल
और इतनी बड़ी दुनिया में
कोई पूछने वाला भी न हो
कौन हो
कहां जा रहे हो
क्यों जा रहे हो
खाए हो कि नहीं
चुल्लू भर पानी को मुहताज
ये कौन लोग हैं
जो घर में नहीं रहना चाहते
इन्हें क्या डर नहीं लगता
मौत से
इन्हें लगे न लगे
पर कुछ लोगों को ज़रूर
डर तो है
इनके बीमार होने का
क्योंकि इनसे फैल सकती है
ख़तरनाक बीमारी
उन लोगों तक
जिनके पास अपना घर है
राशन कार्ड है
आधार कार्ड है
वोटर आईडी है
नौकरी धंधे हैं
मिल फैक्ट्रियां हैं
अकूत धन संपत्ति है
सत्ता है शक्ति है साधन है
इनकी फ़िक्र में
उनसे भी कहा जा रहा है
घर में रहिए
जिनके पास
धरती के बनने से लेकर
आज तक
कोई घर ही नहीं है।

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